गाँधीवादी आंदोलन

             गाँधीवादी आंदोलन पर निबंध  विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं को ध्यान में रखकर लिखा गया है , वशेषकर सिविल सर्विस परीक्षाओं की तयारी करने वालों के लिए ( UPSC, BPSC and other state level एक्साम्स)। यह उन लोगों के लिए भी उपयोगी हैं जो गांधीजी के बारे में विशेष रूचि रखते हैं साथही स्कूल , कॉलेज में अधयनरत्त अभ्यर्थियों  के काफी लाभप्रद साबित होगा।

 

              गाँधीवादी आन्‍दोलन

गाँधी जी के आन्‍दोलन को विभिन्‍न चरणों में देखा जा सकता है:-

  • प्रारंभिक चरण – यह चरण गाँधी जी के आगमन से लेकर असहयोग आंदोलन तक।
  • दुसरा चरण – असहयोग आन्‍दोलन की समाप्ति (1922 से 1947 तक) प्रथम गाँधीवादी आंदोलन की मुख्‍यत: दो प्रवृतियाँ दिखाई देती है:-
  • अ‍खिल भारतीय ब्रिटिश सरकार के पक्ष में युद्ध की परिस्थितियों से अलग रहकर स्‍थानीय मुद्दों पर आधारित विभिन्‍न वर्गो की समस्‍याओं का समाधान करना और इन्‍ही आंदोलनों के अंतर्गत चंपारण सत्‍याग्रह, खेड़ा आंदोलन और अहमादावाद मिल आंदोलन को देखा जा सकता है।
  • वही दूसरी तरफ व्‍यापक जनसंपर्क अभियान के द्वारा एवं हिन्‍दु–मुस्लिम एकता द्वारा व्‍यापक जन आधार को तैयार करना जिससे भविष्‍य के आंदोलन की रुप रेखा तय हो जाय तथा इसी वीच सत्‍याग्रह और अहिंसा जैसे उपकरणों का प्रयोग भी प्रारंभ किया गया।

                  इन उपरोक्‍त प्रवृतियों में गाँधी जी के द्वारा दक्षिण अफ्रिका में प्रयोग किये गए अहिंसात्‍मक सत्‍याग्रह जैसे साधनों एवं उनके व्‍यक्तिगत दर्शनों की अभिव्‍यक्ति हुई। प्रथम विश्‍वयुद्ध के परिणाम स्‍वरुप उपजे भारतीय असंतोष रॉलेक्‍ट एक्‍ट, जालियॉवाला कांड जैसी दमनात्‍क गतिविधियों के कारण मूल गाँधीवादी आन्‍दोलन के प्रवृतियों मे थोड़ा परिवर्तत आया। परन्‍तु, आन्‍दोलन का गाँधी स्‍वरुप ज्‍यो का त्‍यों बना रहा जिसने कलान्‍तर में भारतीय राष्‍ट्रवादी आन्‍दोलन को सशक्‍त जन आन्‍दोलन में परिवर्तित करते हुए आन्‍दोलन को अधिक व्‍यापक और दृष्टिगत किया जिससे कि आगे स्‍वतंत्रता का आधार बना।

 

                     गाँधी जी का कांग्रेस में देन

 

1915 ई० में जब गाँधीजी भारत लौटे तो उस समय भारतीय राजनीति में एक शून्‍यता की स्थिति थी तथा कांग्रेस अपने प्रभावशील स्‍वरुप को थोड़ा सा खो चुका था, परन्‍तु कांग्रेस के द्वारा मुस्लिम लीग के साथ समझौता कर एक राष्‍ट्रवादी विचारधारा को विस्‍तार एवं व्‍यापकता देने का कार्य किया गया। परन्‍तु प्रभावशीलता की स्थिति में कांग्रेस का आधार तब भी बहुत बड़ा नहीं था।

कांग्रेस के महत्‍वपूर्ण नेताओं में गोपालकृष्‍ण गोखले जो अपनी संस्‍था Servants of India Society के साथ-साथ कांग्रेस की भी देखरेख करते थे। वही तिलक एवं लाला लाजपत राय द्वारा भी कांग्रेस को उचित समय नहीं दिया गया। जिसके कारण कांग्रेस का आधार कम होने के साथ-साथ उसकी राजनीतिक दृष्टिकोण भी जनता के पहुँच से दूर थी।

गाँधी जी अपने पूर्व के अनुभवों के आधार पर तथा कांग्रेस के पूर्व की गलतियों को सुधारकर कांग्रेस के आधार को राष्‍ट्रव्‍यापी बनाया तथा कांग्रेस एक जन पार्टी के रुप में प्रसिद्ध हुई। इसके लिए गाँधी जी द्वारा निम्‍न कदम उठाये गये :-

  • कांग्रेस को एकमजबूत संस्‍था के रुप में बदलने के लिए एक पूर्ण कालिक कार्यकारी का गठन किया गया,जिसका कार्य सरकार के नीतियों का मूल्‍यांकन करना तथा उसे जनता के बीच ले जाना।
  • क्षेत्रीय आधार पर अधिक से अधिक कांग्रेस कार्यालय खोले गए जिससे कि कांग्रेस क्षेत्रीय पकड़ मजबूत हुआ तथा लोगो्र का कांग्रेस से जुड़ाव बढ़ा।
  • कांग्रेस को एक वैकल्पिक संस्‍था के रुप में लोगों के बीच स्‍थापित किया। कांग्रेस के सहयोग से चलाये गए सामाजिक  आर्थिक कार्यक्रम जनता से जोड़ने में काफी मद्दगार साबित हुई जिसके कारण लोग अपनी समस्‍याओं के लिए सरकार की बजाय कांग्रेस की ओर उन्‍मुख हुए जिससे कांग्रेस के प्रति लोगों मन में विश्‍वास बढ़ा।
  • गाँधी जी के द्वारा केवल राजनीतिक मुद्दों तक ही आंदोलन को सीमित नहीं रखा गया। इसे सामाजिक आर्थिक आंदोलनों के रुप में भी बदला जिससे कि आंदोलन का आधार शहरी क्षेत्रों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्रों तक भी पहुँचा।
  • गाँधी जी के व्‍यक्तिगत दर्शन का भी प्रभाव कांग्रेस पर अधिक दिखता है (सत्‍याग्रह और अहिंसा) जिससे कि लोग गाँधीवादी आंदोलनों से अपने हितों को जोड़ा परिणामस्‍वरुप कांग्रेस का आधार गाँधीजी के साथ दिन प्रतिदिन एक नये कॉलेवर के साथ लोगो्र के सामने आया।

उपरोक्‍त परिवर्तन के कारण कांग्रेस में जो जुझारुपन आया और  इसके जनाधार में जो स्थिरता आई वो अन्‍तत: आजादी के रुप में परिलक्षित हुआ। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि गाँधी जी के साथ कांग्रेस को एक नया जीवन मिला जिसके बल पर कांग्रेस अपना स्‍वर्णिम इतिहास लिखा।

                 गाँधीवादी रणनीति

1916 ई० से लेकर 1947 ई० तक चलने वाली राष्‍ट्रीय आन्‍दोलनों में गाँधी जी के व्‍यक्तिगत एवं दर्शन का काफी अधिक प्रभाव है; चूँकि, यह आंन्‍दोलन एक दीर्घकालिक संघर्ष के रणनीति से प्रेरित थे और इसके लिए रणनीति को संघर्ष-विराम-संघर्ष के रुप में विकसित किया गया। इस रणनीति से पूर्व गाँधीजी के द्वारा जो संविधानेत्‍तर माध्‍यमों से सशक्‍त जन आन्‍दोलन चलाये गए थे। जिससके फलस्‍वरुप सरकार से कुछ रियायते प्राप्‍त की जाती। इसके बाद तत्‍कालीन कानूनी ढ़ाचे के अंतर्गत उपलब्‍ध अधिकारों का उपयो्र करते हुए गहन राजनीतिक वैचारिक कार्य किया जाता तथा प्राप्‍त रियायतों को अपर्याप्‍त सिद्ध किया जाता और इस प्रकार इस विराम के दौर का उपयोग पहले की तुलना में अधिक प्रभावकारी आंदोलन छेड़ने के लिए ताकत संजोयी जाती। प्राय: इस आन्‍दोलन की शुरुआत असहयोग आंदोलन से प्रारंभ हुई और इसका चरम भारत छोड़ो आंदोलन में दिखाई पड़ता दिया। वस्‍तुत:, गाँधीवादी यह रणनीति कुछ परिकल्‍पनाओं पर आधारित थी, जो इस प्रकार है:-

  • जन आंदोलन का चरित्र ही ऐसा होता है कि देर-सबेर उसमें ठहराव आता ही है।
  • आंदोलन का केन्‍द्र बिन्‍दु जनता होती है और जनता के संघर्ष करने की क्षमता सीमित होती है।
  • विराम काल का उपयोग वैचारिक सक्रियता के द्वारा जनमानस की उत्‍सर्ग क्षमता बढ़ाने तथा औपनिवेशिक दमन का मुकावला करने की शक्ति बढ़ाने का प्रयास था। जिसके माध्‍यम से खादी ग्रामोद्योग, हिन्‍दु–मुस्लिम एकता, अस्‍पृश्‍यता, विदेशी वस्‍त्र एवं खराब का वहिष्‍कार तथा रचनात्‍मक कार्यो के माध्‍यम से लोगों में राष्‍ट्रीच आंदोलन के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण विकसित कर उन्‍हें राष्‍ट्रीय आंदेलन में शामिल करना था।
  • इस प्रकार नई क्षमता और नई उत्‍साह के साथ जनता आंदोलन के लिए पुन: तैयार हो जाती थी जिससे अगले आंदोलन को काफी अधिक शक्ति मिलता था।

गाँधीजी के पूरी रणतीति को समझने के लिए गाँधीजी के द्वारा कहे गए शब्‍दों   पर विचार करना आवश्‍यक प्रतीत होता है, जिसमें गाँधी जी ने कहा है:-

“योग्‍य सेनापति लड़ाई के मैदान और लड़ाई के समय का चुनाव अपने पसन्‍द से करता है और इन मामलों में पहल वह खुद करता है।” सत्‍याग्रह की लड़ाई के तरीके और रण कौशल का चुनाव अर्थात आगे बढ़ना है।  सविनय अवज्ञा  करती है या रचनात्‍मक कार्य स्थिति  की अपेक्षाओं को देखकर किया जाता है।”

निष्‍कर्षत: ववाल यह नहीं था कि बातचीत की जाय अथवा नहीं सवाल यह था कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बातचीत करने का यह मौका है या नहीं। बातचीत किस तरह हो? उसका विषय क्‍या हो? उसका नतीजा क्‍या मिलेगा? और समझौता हो तो उसकी शर्तो क्‍या होगी? अत: गाँधी की रणनीति काफी स्‍पष्‍ट और व्‍यापक थी जिसका मकसद बिना अतिरिक्‍त नुकसान का अधिक से अधिक लाभ अर्जित करने का था और शायद इन्‍हीं उद्देश्‍यों के आलोक में गाँधी जी अपने समस्‍त आंदोलनों को स्‍वयं क्रियान्वित और संचालित करते थे।

                 भारतीय राजनीति में गाँधी का प्रवेश

भारतीय राजनीति में गाँधीजी का प्रवेश कालखण्‍ड की दृष्टि के साथ-साथ राजनीतिक,सामाजिक दृष्टि से भी काफी अहम माना जाता है। जिसे जवाहर लाल लेहरू के शब्‍दों में समझा जा सकता है:-

“गाँधीजी ताजी हवा के उस झोंके की तरह आये जिसने हमारे लिये खुली हवा में साँस लेना संभव बनाया वे प्रकाश की उस किरण की तरह आयें, जो अंधकार में बैठकर हमारी आँखों के सामने से अंधकार के पर्दे को हटाए।वे जब बबण्‍डर की तरह आए जिसने बहुत कुछ विशेषकर श्रमिक और किसानों के दिमाग को उलट-पलट कर रख दिया।” अर्थात इससे गाँधीजी के समस्‍त आन्‍दोलनों और कार्यपणाली की जानकारी मिलती है और इस तरह भारतीय राष्‍ट्रीय आंदोलनों में एक अखिल भारतीय व्‍यक्तित्‍व का परिचय दिया और राष्‍ट्रीय आंदोलनों को एक नई ऊँचाई दी।

गाँधी जी के जीवन में तथा भारत के राजनीतिक जीवन में चंपारण आंदोलन का विशेष महत्‍व है; क्‍योंकि, इससे गाँधी जी को अपने राजनीतिक जीवन को एक नई दिशा और दशा देने का अवसर मिला था और उन्‍हें भारत में एक नई राजनीतिक पहचान मिली थी।

वस्‍तुत; चम्‍पारण अंग्रेजों के शोषण की पराकाष्‍ठा के रुप में था जहाँ किसानों से जबरन न केवल कर वसूला जाता था, बल्कि उन्‍हें ऐसी खेती के लिए मजबूर किया जाता था, जिसकी प्रासंगिकता प्राय: तत्‍कालीन समय में सीमित हो गई थी और यह खेती इतिहास में तीन कठिया के नाम से प्रसिद्ध है।

वास्‍तव में तीन कठिया नील के खेती का एक तरीका था, जिसमें किसान एक बीघा मे तीन कट्ठे में अनिवार्य रुप से नील की खेती करनी होती थी जिसका उपयोग तत्‍कालीन यूरोपीय जमीन्‍दारों के द्वारा अपने हितों के लिए किया जाता था। इस तीन कठिया पद्धति के बदले न तो किसानों को उचित मजदूरी मिलती थी और न ही किसान इसका उपयोग अपने लिये कर पाते थे, इसके विपरीत इस खेती से भूमि पर बुरा प्रभाव पड़ता था, जिससे कि अन्‍य फसलों का उत्‍पादन न के बराबर होता था। इस दयनीय और सोचनीय स्थिति में न केवल किसान का शोषण बढ़ता गया। इन्‍हीं स्थितियों के आलोक में किसान को एक सत्‍याग्रह की आवश्‍यक्‍ता पड़ी, जो गाँधी जी के साथ उन्‍हें मिला।

1916 ई० के लखनऊ अधिवेशन में बिहार के किसान नेता राजकुमार शुक्‍ल जी के आमंत्रण पर गाँधी जी चम्‍पारण आने के लिए तैयार हुए, जबकि इससे पहले चम्‍पारण की समस्‍याओं को लेकर कई लोगों का अहम योगदान रहा, जिसमें ब्रजकिशोर शर्मा, ब्रजकिशोर प्रसाद, गणेश शंकर विद्यार्थी (प्रताप के संस्‍थापक) आदि लोगों के उचित ध्‍यान देने के कारण चम्‍पारण के मुद्दें को एक व्‍यापकता मिली।

11अप्रैल 1917 ई० को गाँधी जी ‘Bihar Lands Association’ के मंत्री जे.एस. विल्‍सन से मुजफ्फरपुर में भेंट की तथा उन्‍हें अपने आने का कारण बताया। विल्‍सन के असहयोग तथा तिरहुत डिवीजन के कमिश्‍नर मोर गेंज के इन्‍कार करने सेस गाँधी जी अपने रणतीति को बदलते हुए चम्‍पारण जाने निर्णय लिया, जबकि सरकार के द्वारा (चम्‍पारण जिला मजिस्‍ट्रेट ) निषेधाज्ञा लगा दी गई थी। इन निषेधाज्ञाओं के बाबजूद गाँधी जी अपने सहयोगी ब्रजकिशोर प्रसाद, राजेन्‍द्र प्रसाद, महादेव देशाई, नरहरि पादेख, जे. वी. कृपलानी के साथ चम्‍पारण पहुँचे। परन्‍तु, सरकार के निषेधाज्ञाओं को तोड़ने के कारण उन्‍हें गिरफ्तार किया गया। परन्‍तु; इसके विरोध में लोगों के समर्थन तथा राष्‍ट्रीय पत्रिकाओं के सहयोग से गाँधी जी की जल्‍द ही जमानत पर रिहा कर दिया गया और चम्‍पारण की समस्‍या को जानने का अधिकार दिया गया।

अन्‍तत: गाँधी जी अपने आन्‍दोलनों के माध्‍यम से तथा जनता के सहयोग से सरकार पर एक दवाब बना पायें, जिससे अंतत: सरकार के द्वारा गाँधी जी को बातचीत के लिए बुलाया गया जिसके आधार पर सरकार ने चम्‍पारण कृषि समिति की स्‍थापना की गई और गाँधी जी को भी इसका सदस्‍य बनाया। 4 अक्‍टूवर 1917 ई० को इस समिति ने अपनी सिफारिश प्रस्‍तुत की और सिफारिश में यह कहा गया कि बढ़े हुए बगान का ¼ हिस्‍सा छोड़ दिया जाय और वॉकी ¾  हिस्‍सा बना रहा। नगद वसूल की गई राशि से 25% किसानों को वापस करने की सिफारिश की गई और तीन कठिया पद्धति को समाप्‍त करने की सिफारिश की गई। इस कमिटी के सिफारिश पर बिहार सरकार के द्वारा 1919 ई० में चम्‍पारण एग्रेगियन एक्‍ट बनाकर तीन कठिया को समाप्‍त कर दिया गया जिससे गाँधी जी भी पहली सफलता के साथ लोगों के मन में ब्रिटिश सरकार के प्रति डर और भय का भाव था उसको दूर करने का प्रयास किया। गाँधी जी को किसानों का समर्थन मिला जिससे आगे अखिल भारतीय आंदोलनों को निर्देशित करना आसान हुआ।

                           चम्‍पारण और गाँधी

भारत में चम्‍पारण गाँधी जी के लिए पहला राजनीतिक प्रयोग स्‍थल है, जहाँ गाँधी जी के द्वारा कुछ पुराने और नये प्रयोगों के द्वारा भारतीय राजनीति में एक नवीन दृष्टिकोण दी गई।

चम्‍पारण जिला मजिस्‍ट्रेट के निषेधाज्ञा के बावजूद गाँधी जी का चम्‍पारण पहुँचना तत्‍कालीन राजनीति में एक अनोखा और नया तरीका था, जो शायद भारत में गाँधी से पहले किसी ने प्रयोग नहीं किया था। सरकारी आदेशों को तोड़क‍र गाँधी जी ने अक्रामक राजनीति की शुरुआत की, जो गाँधी जी के लोकप्रियता को बढ़ाने में मद्दगार साबित हुआ।

चम्‍पारण में गाँधी जी के द्वारा जमीनी स्‍तर पर राजनीति की शुरुआज की गई। गाँव-गाँव में घूमकर लोगों की समस्‍याओं को सुना गया, जिससे लोगों का गाँधी जी के प्रति एक श्रद्धा का भाव उत्‍पन्‍न हुआ जो धीरे-धीरे समर्पण में बदल गया। जिसके बल पर गाँधी जी अपने सभी आंदोलनों का मजबूती के साथ आगे बढ़ाया और जन आंदोलन का रुप दिया।

सत्‍याग्रह के माध्‍यम से सरकार पर जो दबाव बनाई गई वो अपने आप में अनूठा था, जो सरकार के साथ-साथ भारतीय जन मानस में गाँधी जी के प्रति एक नवीन दृष्टिकोण उत्‍पन्‍न किया जिसका फायदा गाँधी जी को आगे चलकर अपने समस्‍त आंदोलनों में प्राप्‍त हुआ।

राजनीतिक उद्देश्‍यों को छोड़कर समाजिक, आर्थिक पिछड़ापन को दूर करने के लिए चम्‍पारण में गाँधी जी के द्वारा शैक्षणिक कार्यक्रम काफी सफल रहा। जो गाँधी को राजनीतिक छवि के बजाय एक समाज सुधारक के रुप में विशेष तौर पर स्‍थापित किया।

इनके द्वारा सभी धर्मों तथा सभी जातियों के प्रति एक सार्वभौम दृष्टि के कारण लोगों के मन में गाँधी जी के प्रति कई मान्‍यताओं का विकास हुआ, जो प्रत्‍यक्ष या परोक्ष रुप में गाँधी को राष्‍ट्रीय आंदोलन में सफल बनाने में महत्‍वपूर्ण साबित हुआ। अत:, चंपारण में गाँधी जी अपने उन समस्‍त राजनीतिक,आर्थिक,सामाजिक एवं सांस्‍कृतिक दर्शनों का आंशिक रुप प्रस्‍तुत किया जिसे वे आगे राष्‍ट्र को देने वाले थे। अत: यह कहना अतिश्‍योक्ति नहीं होगा कि चम्‍पारण सत्‍याग्रह भारत की सभी सत्‍याग्रह और आंदोलनों की आत्‍मा है।

 

 

 

 

 

 

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